सुप्रीम कोर्ट ने बीएनएस 2023 के राजद्रोह प्रावधान पर केंद्र से मांगा जवाब

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) 2023 में शामिल राजद्रोह संबंधी प्रावधान की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर केंद्र सरकार से जवाब मांगा है। यह याचिका मेजर जनरल (रिटायर्ड) एसजी वोंबतकेरे ने दाखिल की है, जिसमें उन्होंने तर्क दिया है कि यह प्रावधान औपनिवेशिक काल के राजद्रोह कानून (आईपीसी की धारा 124ए) को नए नाम और व्यापक भाषा में दोहराता है। चीफ जस्टिस बीआर गवई की अध्यक्षता वाली बेंच ने इस याचिका को पहले से लंबित एक मामले के साथ जोड़ते हुए केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया है। यह मामला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों के दायरे में एक महत्वपूर्ण बहस को जन्म दे सकता है।

याचिका में कहा गया है कि बीएनएस 2023 का राजद्रोह प्रावधान संविधान के मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन करता है। विशेष रूप से, यह अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 19(1)(ए) (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता), और अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) के खिलाफ है। याचिकाकर्ता का तर्क है कि यह कानून अस्पष्ट और व्यापक है, जो इसे मनमाने ढंग से लागू करने की अनुमति देता है। साथ ही, यह कानून आनुपातिकता और स्पष्टता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता, जिसके कारण यह सरकार को नागरिकों की स्वतंत्रता को सीमित करने का अनुचित अधिकार देता है।

औपनिवेशिक कानून का नया रूप?

याचिका में दावा किया गया है कि बीएनएस 2023 का राजद्रोह प्रावधान औपनिवेशिक काल के कुख्यात धारा 124ए का ही एक नया संस्करण है। ब्रिटिश शासन के दौरान इस कानून का उपयोग स्वतंत्रता सेनानियों की आवाज दबाने के लिए किया जाता था। याचिकाकर्ता का कहना है कि नए प्रावधान में भाषा और दायरे को और अधिक व्यापक कर दिया गया है, जिससे यह और भी दमनकारी हो गया है। यह प्रावधान असहमति और आलोचना को अपराध के दायरे में लाता है, जो लोकतांत्रिक समाज में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए खतरा है।

सुप्रीम कोर्ट ने 2022 में धारा 124ए के दुरुपयोग पर चिंता जताते हुए इसके उपयोग पर रोक लगा दी थी और केंद्र को इस कानून की समीक्षा करने का निर्देश दिया था। हालांकि, याचिकाकर्ता का कहना है कि बीएनएस 2023 में शामिल नया प्रावधान पुराने कानून की कमियों को दूर करने के बजाय उन्हें और गंभीर बना देता है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बहस

यह याचिका एक बार फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सरकारी शक्तियों के बीच संतुलन पर बहस को केंद्र में लाती है। कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि इस मामले का फैसला भारत के लोकतांत्रिक ढांचे के लिए दूरगामी परिणाम ला सकता है। याचिका में यह भी मांग की गई है कि राजद्रोह कानून को पूरी तरह रद्द किया जाए, क्योंकि यह आधुनिक लोकतंत्र के सिद्धांतों के अनुकूल नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को जवाब दाखिल करने के लिए चार सप्ताह का समय दिया है। इस बीच, इस मामले को अन्य समान याचिकाओं के साथ जोड़कर सुनवाई की जाएगी। यह मामला न केवल कानूनी, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह नागरिकों के अधिकारों और सरकार की जवाबदेही पर सवाल उठाता है।

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